सफल लोगों की असफलता की कहानी में मेरी तीसरी कहानी है भारतवर्ष की आन, बान और शान “स्वामी विवेकानंदजी”। इनके बारे में कुछ भी लिखना सूरज को दिया दिखाने जैसा है फिर भी मैं ये गुस्ताख़ी कर रही हूँ। कोई भी गलती हो जाये तो मेरे पाठक मुझे माफ़ कर दें।

स्वामी विवेकानंद: असफलताओं से सफलता की ओर
सफल लोगों की असफलता की कहानी में मेरी तीसरी कहानी है स्वामी विवेकानंद, भारत के महान संत, समाज सुधारक, और आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने अपने जीवन में असंख्य कठिनाइयों और असफलताओं का सामना किया, लेकिन कभी हार नहीं मानी। उनके संघर्ष और असफलताओं ने ही उन्हें एक अद्वितीय व्यक्ति और प्रेरणास्रोत बनाया। इस लेख में हम देखेंगे कि कैसे स्वामी विवेकानंद ने अपने जीवन में असफलताओं का सामना किया और असफलता से सफलता की ओर अग्रसर हुए।
स्वामी विवेकानंद का प्रारंभिक जीवन और संघर्ष
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। उनके पिता विश्वनाथ दत्त एक वकील थे और मां भुवनेश्वरी देवी एक धार्मिक महिला थीं।बचपन से ही विवेकानंद अत्यधिक जिज्ञासु और तर्कसंगत थे। वे हर चीज का कारण जानना चाहते थे और इसे तर्क के माध्यम से समझने की कोशिश करते थे।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा कोलकाता में हुई , जहाँ उन्होंने विभिन्न विषयों में गहन अध्ययन किया। विशेष रूप से वे वेद, उपनिषद और भारतीय दर्शन में रुचि रखते थे। इसके अलावा, उन्होंने पश्चिमी दर्शन और विज्ञान का भी अध्ययन किया, जिससे उनकी सोच व्यापक और संतुलित हो गई।
आध्यात्मिकता की खोज
विवेकानंद बचपन से ही आध्यात्मिक और धार्मिक प्रवृत्ति के थे लेकिन उन्हें जीवन के महत्वपूर्ण सवालों का उत्तर नहीं मिल रहा था। ईश्वर का अस्तित्व, सत्य का ज्ञान, और जीवन का उद्देश्य—इन सभी सवालों के जवाब के लिए उन्होंने कई साधुओं और संतों से संपर्क किया, लेकिन संतुष्ट नहीं हुए।
रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात और आध्यात्मिक जागरण

जब वे रामकृष्ण परमहंस से मिले, तब जाकर उन्हें अपनी आंतरिक खोज का उत्तर मिला। हालांकि, रामकृष्ण परमहंस की सीधी और सरल शिक्षाओं को मानने में विवेकानंद को समय लगा। समाज के लोग भी उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस और उनके संबंधों पर उंगलियां उठाते थे, जिससे उन्हें मानसिक तनाव झेलना पड़ा। परंतु उन्होंने अपने संदेहों को दूर कर रामकृष्ण परमहंस के मार्गदर्शन में अपनी साधना जारी रखी।
रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को आत्मज्ञान और सच्ची भक्ति का मार्ग दिखाया। यह संबंध गुरु-शिष्य परंपरा का एक आदर्श उदाहरण था। विवेकानंद ने रामकृष्ण से सीखा कि सभी धर्म सत्य की ओर ले जाते हैं और हर व्यक्ति के अंदर परमात्मा का वास होता है।
1886 में रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के बाद, विवेकानंद ने अपने जीवन को उनके सिद्धांतों के प्रचार और सामाजिक सुधार के कार्यों में समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने शिष्यों के साथ मिलकर “रामकृष्ण मिशन” की स्थापना की, जो आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और सेवा के क्षेत्र में कार्यरत है।
शिकागो विश्व धर्म महासभा (1893)

1893 में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में आयोजित “विश्व धर्म महासभा” में भाग लिया, जहाँ उन्होंने भारतीय सनातन धर्म और वेदांत के महान सिद्धांतों का प्रचार किया। उनका भाषण, जो “अमेरिका के भाइयों और बहनों” से शुरू हुआ, विश्वभर में प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने इस भाषण में सभी धर्मों के बीच एकता, सहिष्णुता और मानवता के महत्व पर जोर दिया। उनके विचार न केवल भारतीय दर्शन के महत्व को प्रदर्शित करते थे, बल्कि यह भी बताते थे कि आध्यात्मिकता का वास्तविक अर्थ मानवता की सेवा करना है।
स्वामी विवेकानंद ने पहले अमेरिका की यात्रा की थी, जहाँ वे विश्व धर्म महासभा में भाग लेने गए थे। इसके बाद वे लंदन गए, जहाँ उन्होंने अपने विचारों को आगे फैलाने का कार्य किया।
जीवन के संघर्ष : असफलताएँ और आलोचनाएँ
शुरुआती जीवन में ही विवेकानंद को समाज और परिवार से जुड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनके पिता की मृत्यु के बाद, परिवार पर आर्थिक संकट आ गया। विवेकानंद और उनके परिवार को भूखे पेट सोने तक की नौबत आई।
स्वामी विवेकानंद की जीवन यात्रा में कई बार आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। समाज के कई लोग उनके विचारों से सहमत नहीं थे, विशेष रूप से जब उन्होंने जाति, धर्म, और संप्रदाय से परे मानवता की बात की। यहाँ तक कि उनके चरित्र पर भी सवाल उठाए गए। कई लोग उनके समाज सुधार के प्रयासों और महिलाओं की शिक्षा को लेकर उन पर कटाक्ष करते थे।
शिकागो की विश्व धर्म महासभा में भाग लेने के लिए उन्हें आर्थिक संघर्षों का सामना करना पड़ा। प्रारंभ में किसी ने उनके यात्रा की जिम्मेदारी नहीं ली, और उन्हें धन जुटाने के लिए कई प्रयास करने पड़े। यहाँ तक कि कुछ लोगों ने उनकी योग्यता और विश्व धर्म महासभा में भाग लेने की क्षमता पर भी संदेह जताया।
अमेरिका में भी शुरू में कई दिनों तक भूखा रहकर विवेकानंद जी को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। विवेकानंद जी को स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का भी सामना करना पड़ा था।
लेकिन विवेकानंद जी ने कभी मुश्किलों के सामने सिर नहीं झुकाया और बल्कि अपने विचारों के साथ डटे रहे।
अंततः सफलता
स्वामी विवेकानंद की सबसे बड़ी शक्ति थी उनका कभी न हार मानने वाला दृष्टिकोण। कठिनाइयों और असफलताओं ने उन्हें कमजोर नहीं किया, बल्कि और मजबूत बनाया। उनकी शिक्षाएँ और विचार आज भी दुनिया भर के लोगों को प्रेरित करते हैं। रामकृष्ण मिशन की स्थापना और उनके सामाजिक कार्यों ने उन्हें एक महान व्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया।
शिकागो की विश्व धर्म महासभा में सफलता ( असफलता से सफलता की ओर बढ़ते कदम )

1893 में जब स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में विश्व धर्म महासभा में भाग लिया, उनके द्वारा दिया भाषण आज भी एक ऐतिहासिक क्षण माना जाता है। “मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों” से शुरू हुआ उनका भाषण पूरे विश्व में गूँज उठा था जिसकी गड़गड़ाहट आज भी समय समय पर गूँज उठती है। अमेरिका में उन्होंने शुरू में कई दिनों तक भूखा रहकर कठिन परिस्थितियों का सामना किया।
लेकिन इस सफलता से पहले उन्हें कई आर्थिक और मानसिक संघर्षों से गुजरना पड़ा, जिसका संक्षिप्त उल्लेख ऊपर के अनुच्छेद में कर चुकी हूँ।
लेकिन शिकागो में मिली सफलता के बाद भी विवेकानंदजी के जीवन के संघर्ष खत्म नहीं हुए थे।
स्वामी विवेकानंद ने भारत लौटने के बाद भी बहुत मुसीबतों तथा गरीबी का सामना किया। इसके पीछे कुछ मुख्य कारण थे।
1. सामाजिक और आर्थिक स्थितियाँ:
भारत की स्थिति: 19वीं सदी के अंत में भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी। देश औपनिवेशिक शासन के अधीन था और अधिकांश लोग आर्थिक तंगी का सामना कर रहे थे। ऐसे समय में एक सामाजिक सुधारक के रूप में काम करना बहुत चुनौतीपूर्ण था।
2. धर्म और सामाजिक सुधार का कार्य:
साधन की कमी: विवेकानंद जी ने जनसाधारण के बीच जागरूकता फैलाने और उनके उद्धार के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया लेकिन इसके लिए उनके पास पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं थे। इस कार्य के लिए वे अपने व्यक्तिगत साधनों का उपयोग भी किया करते थे।
3. स्वयं का त्याग:
सादगी का जीवन: विवेकानंद ने अपने लिए सादगी और त्याग का जीवन चुना। उन्होंने भौतिक संपत्ति को अधिक महत्व नहीं दिया। उनके लिए आध्यात्मिकता और जनसेवा सर्वोपरि थीं और जिसके कारण उन्होंने भौतिक सुखों का त्याग भी किया।
4. समाज के प्रति जिम्मेदारी:
सामाजिक कार्य: विवेकानंद ने अपने समय का अधिकांश भाग समाज के उत्थान और सुधार के कार्यों में लगाया। उन्होंने समाज में फैली अज्ञानता और असमानता को दूर करने के लिए काम किया, लेकिन इसके लिए उन्हें आर्थिक रूप से संघर्ष करना पड़ा।
5. राजनीतिक अस्थिरता:
राजनीतिक परिस्थिति: विवेकानंद के समय भारत में राजनीतिक अस्थिरता और संघर्ष का दौर चल रहा था। इस स्थिति ने भी समाज और अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव डाला, जिससे उनके कार्यों में और भी कठिनाई आई।
6. स्वास्थ्य समस्याएँ:
स्वास्थ्य की चुनौतियाँ: विवेकानंद को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का भी सामना करना पड़ा, जिसने उनके जीवन को और कठिन बना दिया।
स्वामी विवेकानंद के प्रमुख विचार

स्वामी विवेकानंद के विचार आज भी समाज के हर वर्ग के लिए प्रेरणादायक हैं। उनके कुछ प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं:
- स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता: विवेकानंद ने युवाओं से कहा कि वे अपने जीवन को सफल बनाने के लिए स्वावलंबी बनें और आत्मनिर्भरता पर जोर दें। उनका मानना था कि व्यक्ति को अपनी क्षमताओं पर भरोसा रखना चाहिए और अपने लक्ष्य की ओर निरंतर प्रयास करना चाहिए।
- शिक्षा का महत्व: विवेकानंद ने शिक्षा को व्यक्ति के समग्र विकास का साधन माना। उनका कहना था कि “शिक्षा वह नहीं है जो केवल तथ्यों को याद करने में मदद करे, बल्कि शिक्षा वह है जो जीवन के हर पहलू में व्यक्ति का मार्गदर्शन करे।” उन्होंने महिलाओं और गरीबों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया।
- धर्म और विज्ञान का सामंजस्य: विवेकानंद ने कहा कि धर्म और विज्ञान एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, बल्कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं। उनके अनुसार, सच्ची धार्मिकता और वैज्ञानिक सोच दोनों ही व्यक्ति को उच्चतर सत्य तक पहुंचाने में मदद करते हैं।
- मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है: विवेकानंद ने कहा कि मानवता की सेवा ही सच्चा धर्म है। उन्होंने गरीबों, वंचितों और कमजोरों की मदद करने को ही सबसे बड़ा धर्म माना। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “दरिद्र नारायण की सेवा करो, यही सच्ची भक्ति है।”
- “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।” यह उनका सबसे प्रसिद्ध और प्रेरणादायक कथन है, जो सभी को अपने जीवन में लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित तथा जीवन से हार नहीं मानने की शक्ति भी प्रदान करता है।
- “एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो—उसके बारे में सोचो, उसके सपने देखो, उस विचार पर जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भर दो, और हर दूसरे विचार को छोड़ दो। यही सफलता का मार्ग है।”
- “अपने ऊपर विश्वास करो, यही सबसे बड़ा बल है।” स्वामी विवेकानंद ने आत्म-विश्वास को सफलता की कुंजी माना और इसे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण गुण बताया।
- “तुम जो सोचते हो, वही बन जाते हो। यदि तुम स्वयं को कमजोर मानते हो, तो तुम कमजोर बन जाओगे; यदि तुम स्वयं को शक्तिशाली मानते हो, तो तुम शक्तिशाली बन जाओगे।”
- “जिससे प्रेम होता है, उसकी कमियों को देखना बंद कर दो।” विवेकानंद ने प्रेम को सबसे बड़ी शक्ति माना और सच्चे प्रेम में बिना शर्त की भावना को महत्वपूर्ण बताया।
- “विश्व एक व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।” उन्होंने जीवन के संघर्षों को एक चुनौती के रूप में देखा, जो हमें मजबूत बनाती हैं।
- “किसी की मदद करने में अगर तुम कोई भूल भी करते हो, तो उसे गलती मत कहो।”
- “अगर धन का उपयोग दूसरों की मदद के लिए नहीं किया जाता, तो यह बुराई का रूप है।” विवेकानंद ने कहा कि धन का सही उपयोग वही है जो समाज और लोगों की भलाई में हो।
- “जब आप व्यस्त है अर्थात प्रयास कर रहे है , जीवन में सब कुछ आसान है। लेकिन अगर आप आलसी हैं तो जीवन में कुछ भी प्राप्त करना मुश्किल है।
स्वामी विवेकानंद के ये कथन जीवन के हर क्षेत्र में प्रेरणा प्रदान करते हैं और हमें अपने जीवन को सकारात्मक और उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए मार्गदर्शन देते हैं।
स्वामी की उपाधि देने के पीछे कारण:

- सन्यास ग्रहण करना: रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के बाद, विवेकानंद ने सन्यास लेने का निर्णय लिया, जिसका अर्थ है कि उन्होंने सांसारिक मोह-माया और भौतिक जीवन का त्याग कर दिया। सन्यास ग्रहण करने के साथ ही उन्हें “स्वामी” की उपाधि दी गई, जो सन्यासियों को दी जाती है।
- आध्यात्मिक जीवन और शिक्षा: विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के विचारों और शिक्षाओं को पूरी दुनिया में फैलाने का संकल्प लिया। वे एक महान आध्यात्मिक शिक्षक और समाज सुधारक बन गए, और “स्वामी” की उपाधि उनके त्याग, सेवा और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक बन गई।
- रामकृष्ण परमहंस की परंपरा का पालन: रामकृष्ण परमहंस के शिष्य होने के नाते, विवेकानंद ने अपने गुरु की आध्यात्मिक शिक्षाओं को अपनाया और उन्हें आगे बढ़ाया। भारतीय परंपरा के अनुसार, जो व्यक्ति पूर्ण रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक मार्ग पर चलता है और सन्यास लेता है, उसे “स्वामी” की उपाधि दी जाती है।
इस प्रकार, स्वामी विवेकानंद को “स्वामी” की उपाधि उनके सन्यास और उनके द्वारा अपनाए गए आध्यात्मिक मार्ग के कारण दी गई। उन्होंने इस उपाधि को अपनी विचारधारा और कार्यों के माध्यम से सार्थक बनाया, और वे आज भी पूरी दुनिया में “स्वामी विवेकानंद” के रूप में प्रसिद्ध हैं।
स्वामी जी के जीवन से सीख
विवेकानंद जी स्वयं एक पाठशाला थे। उन्होंने जो कहा , वही अपने जीवन में किया और जो किया वही कहा। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। उनका जीवन देखकर ये सीखा जा सकता है कि जब तक अपने जीवन का लक्ष्य हासिल ना हो जाये , हार मत मानो ,डटे रहो। विवेकानंद का जीवन हमें सिखाता है कि असफलताएँ जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन उनसे घबराना नहीं चाहिए। स्वामी विवेकानंदजी ने अपने जीवन के हर मोड़ पर बहुत कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन वे कभी अपने लक्ष्य से भटके नहीं। उनका जीवन इस बात का जीता जागता उदाहरण है कि कैसे आत्म-विश्वास, संकल्प और धैर्य के साथ कोई भी व्यक्ति असफलताओं पर विजय पा सकता है और समाज में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है।
निष्कर्ष
स्वामी विवेकानंद का जीवन असफलताओं से भरा हुआ था, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उनके जीवन के संघर्ष हमें यह सिखाते हैं कि असफलताओं का सामना करने से घबराने की बजाय, हमें उनसे सीखकर आगे बढ़ना चाहिए। उनकी आध्यात्मिकता, मानवता और समाज सेवा के प्रति समर्पण ने उन्हें इतिहास में अमर कर दिया है। यदि आप जीवन में असफलताओं का सामना कर रहे हैं, तो स्वामी विवेकानंद के जीवन से प्रेरणा लें और अपने लक्ष्यों की ओर निरंतर बढ़ते रहें।
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