मेरे मन में हमेशा से समाज में चल रही प्रथाओं को लेकर बहुत सारे सवाल आते रहते थे तो मैंने सोचा कि क्यों न ये सब मैं आपके साथ साझा करूँ। बचपन में हमेशा मैं ये सोचती थी कि क्यों घर के सारे कार्य औरतें ही करती है उनका मन हो या न हो ,उन्हें सबकी सेवा करनी ही पड़ती है  और कभी काम में कुछ कमी रह जाये तो चार बातें भी सुननी पड़ती है । उनको वह सम्मान क्यों नहीं मिलता जिसकी वह अधिकारी है।  मेरे मन को हमेशा ये प्रश्न बहुत परेशान करता था कि क्यों महिलाएँ सेवा करने के लिए हैं और पुरुष सेवा करवाने के लिए। जब जन्म देने वाला ईश्वर लड़के और लड़की को पैदा करने में कोई भेदभाव नहीं करता, दोनों के जन्म की प्रक्रिया में नौ महीने ही लगते है ,दोनों को जन्म भी स्त्री ही देती है ,सब कुछ एक समान होता है तो किसने किसको ये अधिकार दिया कि हम जन्म देने वाली स्त्री को ही सेविका बनाने वाले सारे काम दे दें ,उसे अपनी इच्छानुसार कार्य चुनने की आज़ादी क्यों नहीं दी जाती?? 

समाज की व्यवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्री का जन्म ही सबकी सेवा करने के लिए होता है। जब वह अपने माँ के घर हो तब भले ही वह छोटी हो और भाई बड़ा फिर भी घर में माँ का हाथ बटाना हो तो ज़िम्मेदारी उसी की है ,भाई को भी खाना खाना हो वह खुद से लेकर नहीं खायेगा, उसे खाना खिलाने की ज़िम्मेदारी भी उसी की है।  उसका  पालन -पोषण का तरीका ही कुछ ऐसा है कि अपने घर में भी सबकी खुशियों का ज़िम्मा उसी का होता है। उसे खुद की ख़ुशी के बारे में भी सोचना है ,ये कभी बताया ही नहीं जाता। 

  उसे उसके खुद के घर में भी ससुराल जाकर सेवा करने के लिए तैयार किया जाता है।  ये सीख लो, वह सीख लो, नहीं तो ससुराल में सब कहेंगे कि माँ ने कुछ सिखाया नहीं।

एक औरत के बारे में निर्णय उसके अलावा सब ले सकते है , वह अपने मन का कोई भी काम नहीं कर सकती है, अपने मन के कपड़ें पहनने की आज़ादी भी उसे नहीं होती है। इतना ही नहीं वह विवाह के बाद अपने माँ -बाप से भी अपनी इच्छानुसार मिल नहीं सकती ,उनकी कुछ मदत भी नहीं कर सकती।

रिश्तों की बेड़ियों में जकड़ी हुई असहाय औरत जो कभी अपनी बेबसी का जिक्र भी नहीं करती और हँसते हँसते अपने सारे फ़र्ज़ पूरे करती है…. कितना हास्यास्पद और आश्चर्यजनक है ये सब???? पर यही हक़ीक़त है और सबसे बड़े आश्चर्य की बात ये है कि इस परवरिश को देने वाली औरत ही होती है , एक औरत होकर भी वह स्वयं का मूल्य नहीं जानती है ,अपने ही अस्तित्व को नकार देती है वह और एक औरत होते हुए भी औरत पर ही ज़ुल्म करती है और ये सिलसिला सदियों से चलता आ रहा है।

 और सबसे बड़ा हास्यास्पद तो ये है कि वह बहुत खुश है इस तरह का जीवन जीने में। वह एक औरत होकर औरत का साथ नहीं देती है। वह अपनी बेटी के लिए भी वही जीवन चुनती है जो उसने जिया है। उसे परिवर्तन की आवश्यकता महसूस नहीं होती है।

खुश है वह यूँ ही जिए जाने में ,पुरुषों की सेवा करने की परंपरा निभाने में, त्याग की मूर्ति  बन अपने सुखों को त्याग देने में, देवी बनकर जानवरों से बदतर जीवन जीने में.

मैं तो समझने में असमर्थ हूँ कि किस तरह ये परंपरा शुरू की गई होगी, “एक औरत द्वारा एक औरत पर ज़ुल्म की परंपरा”। क्या औरतों ने स्वेच्छा से इस परंपरा की शुरुआत की होगी या अशिक्षा इसकी वजह रही होगी या फिर पुरुष प्रधान समाज के आगे उसने अपने घुटने टेक दिए होंगे। मेरे मन में ये सवाल हमेशा आता है कि किस तरह औरतों के दिमाग को प्रशिक्षित किया होगा कि वह स्वयं महिला होते हुए भी स्वयं के ही अस्तित्व को नकार देती होंगी और खुद के आगे पुरुषों को अधिक महत्व देती होगी ।

  एक सवाल और आता है कि लिंग के आधार पर कार्य का विभाजन किसने किया होगा जिसके तहत औरतों के मन को जाने बगैर उसके बारे में दूसरे निर्णय लेते है। 

अभी ज़माना थोड़ा बदल रहा है ,औरतों अपना मूल्य समझ रही है और आत्मनिर्भरता को महत्व दे रही है , समाज में व्याप्त कुप्रथाओं के प्रति जागरूक हो रही हैं। औरतें खुलकर सांस लेना शुरू कर चुकी है लेकिन सदियों से चली आ रही परम्पराओं को बदलने में वक्त तो लगेगा। 

औरतें जिन्हें पहले अपनी काबिलियत दिखाने का मौका नहीं मिला था, वह भी आज की पीढ़ी के साथ कदम मिलाकर चलने का प्रयत्न कर रही है। अपने लड़का और लड़की की एक समान परवरिश करने का प्रयत्न कर रही हैं। 

  अब एक ऐसे जहाँ की छवि साफ़ दिख रही हैं जहाँ लिंग के आधार पर औरतों को भी कोई कार्य करने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा बल्कि वे भी अपनी इच्छानुसार अपने कार्य को चुनने के लिए स्वतंत्र होंगी। 

अब जब औरतों ने अपना मूल्य पहचान लिया है तो परिवर्तन को कोई नहीं रोक सकता ,क्योंकि औरत जननी है।  उसके द्वारा अपने बच्चों को दी गई शिक्षा एक नए युग की रचना करेगी ….

3 thoughts on “ “औरत” एक नज़रिया[Women a Perspective]”

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